श्रीमद्भगवद्गीता
श्लोक ३-३३ पर विशेष बात – ४
Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 33
भगवद् गीता अध्याय 3 श्लोक 33
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।3.33।।
हिंदी अनुवाद – स्वामी रामसुख दास जी ( भगवद् गीता 3.33)
।।3.33।।सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा
हिंदी अनुवाद – स्वामी तेजोमयानंद
।।3.33।। ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति पर ही जाते हैं फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा।।
स्वामी रामसुख दास जी explains
जैसे सौ मील प्रति घंटे की गति से चलने वाली मोटर अपनी नियत क्षमता से अधिक नहीं चलेगी, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष के द्वारा भी अपनी शुद्ध प्रकृति के विपरीत चेष्टा नहीं होगी। जिनकी प्रकृति अशुद्ध है, उनकी प्रकृति बिगड़ी हुई मोटर के समान है। बिगड़ी हुई मोटर को सुधारने के दो मुख्य उपाय हैं
(१) मोटर को खुद ठीक करना और
(२) मोटर को कारखाने में पहुँचा देना।
Just as a motor running at a speed of one hundred miles per hour will not run beyond its stipulated capacity, similarly there will be no effort by a wise man against his pure nature. Those whose nature is impure; their nature is like a spoiled motor. There are two main ways to repair a broken motor
(1) repair the motor itself and
(2) deliver the motor to the factory.
इसी प्रकार अशुद्ध प्रकृति को सुधारने के भी दो मुख्य उपाय है
(1) राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करना और
(2)भगवान के शरण में चले जाना।
यदि मोटर ठीक चलती है तो हम मोटर के वश में नहीं हैं और यदि मोटर बिगड़ी हुई है तो हम मोटर के वश में हैं।
ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष प्रकृति के शुद्ध होने के कारण प्रकृति के वश में नहीं होता और अज्ञानी पुरुष प्रकृति के अशुद्ध होने के कारण प्रकृति के वश में होता है।
Similarly, there are two main ways to rectify the impure nature-
(1) to act without attachment and aversion, and
(2) to take refuge in the Lord.
If the motor runs well then, we are not under the control of the motor and if the motor is defective then we are under the control of the motor. Similarly, the wise man is not under the control of Prakriti because Prakriti is pure, and the ignorant person is in control of Prakriti because of the impure nature of Prakriti.
इस श्लोक में श्रीकृष्ण पुनः इस बिन्दु की ओर लौटते हैं कि कर्म करना निष्क्रिय रहने से श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव से प्रेरित होकर लोग अपने व्यक्तिगत गुणों के अनुसार कार्य करने में प्रवृत्त होते हैं जबकि सैद्धान्तिक रूप से शिक्षित लोग भी अपने अनन्त पूर्वजन्मों के संस्कारों, इस जन्म के कर्म ‘प्रारब्ध’ तथा अपने मन और बुद्धि के निजी लक्षणों की गठरी को अपने साथ उठाए रहते हैं। उन्हें प्रतीत होता है कि इस प्रकृति और प्रवृत्ति के वेग को रोकना कठिन है। यदि वैदिक ग्रंथ उन्हें सभी प्रकार के कर्मों का त्याग करने का और केवल आध्यात्मिकता में तल्लीन होने का उपदेश देते तब इससे असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गयी होती। ऐसी कृत्रिम विमुखता का प्रतिकूल प्रभाव होता। आध्यात्मिक उन्नति का उपयुक्त और सरल मार्ग प्रकृति और प्रवृत्ति की असीम शक्ति का प्रयोग करना और इनकी दिशा को भगवान की ओर परिवर्तित करना है। जिस स्थिति में हम हैं वहीं से हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होना आरम्भ करना चाहिए और ऐसा करने के लिए हमें सर्वप्रथम अपनी वर्तमान मनोदशा को स्वीकार करना होगा और तत्पश्चात इसे सुधारना होगा।
हम देख सकते हैं कि जैसे जानवर भी अपने विलक्षण स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं। चीटियाँ एक सामाजिक प्राणी की भांति अपने समुदाय की देखभाल के लिए भोजन एकत्रित करती हैं। ऐसा गुण मनुष्य में कठिनता से देखने को मिलता है। एक गाय का अपने बछड़े से आन्तरिक लगाव होता है। एक क्षण के लिए भी जब वह उसकी आंखों से ओझल होता है तब गाय अत्यंत व्याकुल हो जाती है। कुत्ते की स्वामिभक्ति के गुण की तुलना भी सभ्य मनुष्यों से नहीं की जा सकती। समान रूप से मनुष्य भी अपनी प्रकृति से प्रेरित होते हैं। क्योंकि अर्जुन योद्धा था इसलिए श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि ‘तुम्हारा क्षत्रिय तुल्य स्वभाव तुमसे युद्ध की अपेक्षा करता है’ (भगवद्गीता 18.59)। ‘तुम अपने जन्म के स्वभाव से जनित कर्म द्वारा बाध्य होकर इसे करोगे’ (भगवद्गीता 18.60)। हमें अपने लक्ष्य को संसार सुखों से हटाते हुए उसे भगवद्प्राप्ति की ओर परिवर्तित कर अपने स्वभाव का परिष्कार करना चाहिए और अपने नियत कर्तव्यों का पालन बिना आसक्ति और विरक्ति भाव से भगवत सेवा की भावना के साथ करना चाहिए।
हिंदी टीका – स्वामी चिन्मयानंद जी
।।3.34।। पूर्व श्लोक में कहा गया था कि शास्त्राध्ययन करने वाला ज्ञानवान् पुरुष भी नैतिकता का उच्च जीवन जीने में अपने को असमर्थ पाता है क्योंकि उसकी कुछ निम्न स्तर की प्रवृत्तियाँ कभीकभी उससे अधिक शक्तिशाली सिद्ध होती हैं। सर्वत्र अनुपलब्ध औषधि का उपचार लिख देना रोग का निवारण करना नहीं कहलाता। दार्शनिक तत्त्ववेत्ता का यह कर्तव्य है कि वह केवल हमारे वर्तमान जीवन की दुर्बलताओं को ही नहीं दर्शाये बल्कि पूर्णत्व की स्थिति का ज्ञान कराकर उस साधन मार्ग को भी दिखाये जिससे हम दोषमुक्त होकर पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकें। केवल ऐसा करके ही वह दार्शनिक तत्त्वविज्ञ पुरुष अपनी पीढ़ी को कृतार्थ कर सकता है।यह सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभावानुसार कार्य करता है परन्तु यह स्वभाव वह अपने कर्म एवं विचारों के द्वारा बनाता है और न कि किसी अन्य के कारण। अत यहाँ पुरुषार्थ के लिये अवसर है। उसी को यहाँ श्रीकृष्ण बता रहे हैं। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के मन में राग अथवा द्वेष उत्पन्न होता है। शब्दस्पर्शादि इन्द्रियों के विषय स्वयं किसी भी प्रकार हमारे अन्तकरण में दुख या विक्षेप उत्पन्न नहीं कर सकते। विषयों के ग्रहण करके मन किसी के प्रति राग और किसी के प्रति द्वेष रखता है और मन के इन रागद्वेषों के कारण प्रिय या अप्रिय विषय के दर्शन अथवा प्राप्ति से मनुष्य को हर्ष या विषाद होता है। स्वयं रागद्वेष्ा को उत्पन्न करके मनुष्य का फिर प्रयत्न होता है प्रिय की प्राप्ति और अप्रिय का त्याग। विषयों के प्रति राग और द्वेष सदा परिवर्तित होते रहने के कारण वह सदा ही क्षुब्धचित्त बना रहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये रागद्वेष ही लुटेरे हैं जो मन की शांति का हरण कर लेते हैं और जिनके कारण मनुष्य सच्चा जीवन नहीं जी पाता। वास्तव में यह दुख की बात है।वस्तुस्थिति को दर्शाकर भगवान् समस्त साधकों को उपदेश देते हैं कि मनुष्य को चाहिये कि वह इन दोनों के वश में न होवे।प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में बाह्य जगत् से पलायन करने का उपदेश गीता में कहीं पर भी नहीं मिलता। भगवान् का उपदेश तो यहाँ और अभी जीवन की उपलब्ध परिस्थितियों में शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से सब अनुभवों को प्राप्त करते हुये जीने के लिये है। आग्रह केवल इस बात का है कि सभी परिस्थितियों में मनुष्य को मन आदि उपाधियों का स्वामी बनकर रहना चाहिये और न कि उनका दास बनकर। इस प्रकार के स्वामित्व को प्राप्त करने का उपाय राग और द्वेष से मुक्त हो जाना है।रागद्वेष से मुक्ति पाने के लिये मिथ्या अहंकार तथा तज्जनित अन्य प्रवृत्तियों को समाप्त करना चाहिये क्योंकि राग और द्वेष अहंकार से सम्बन्धित हैं। इसलिए अहंकाररहित कर्म करने पर वासनाओं का क्षय हो जाता है। वासनाओं से उत्पन्न होता है मन और वहीं पर अहंकार का खेल होता है। जैसेजैसे वासनायें क्षीण होती जाती हैं वैसेवैसे मन भी नष्ट हो जाता है। मन के नष्ट होने पर शुद्ध आत्मा का प्रतिबिम्ब रूप अहंकार भी नष्ट हो जाता है।भगवान् वासना क्षय का उपाय निम्न श्लोक में बताते हैं
English Commentary – Swami Sivananda
3.34 इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य of each sense? अर्थे in the object? रागद्वेषौ attachment and aversion? व्यवस्थितौ seated? तयोः of these two? न not? वशम् sway? आगच्छेत् should come under? तौ these two? हि verily? अस्य his? परिपन्थिनौ foes.Commentary Each sense has got attraction for a pleasant object and aversion for a disagreeable object. If one can control these two currents? viz.? attachment and aversion? he will not come under the sway of these two currents. Here lies the scope for personal exertion or Purushartha. Nature which contains the sum total of ones Samskaras or the latent selfproductive impressions of the past actions of merit and demerit draws a man to its course through the two currents? attachment and aversion. If one can control these two currents? if he can rise above the sway of love and hate through discrimination and Vichara or right eniry? he can coner Nature and attain immortality and eternal bliss. He willl no longer be subject to his own nature now. One should always exert to free himself from attachment and aversion to the objects of the senses.
English Translation of Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya’s
3.34 Raga-dvesau, attraction and repulsion, in the following manner-attraction towards desirable things, and repulsion against undesirable things; (vyavasthitau, are ordained,) are sure to occur, arthe, with regard to objects such as sound etc.; indriyasya indriyasya, of all the organs, with regard to each of the organs. As to that, the scope of personal effort and scriptural purpose are being stated as follows: One who is engaged in the subject-matter of the scriptures should, in the very beginning, not come under the influence of love and hatred. For, that which is the nature of a person impels him to his actions, verily under the influence of love and hatred. And then follow the rejection of ones own duty and the undertaking of somebody else’s duty. On the other hand, when a person controls love and hatred with the help of their opposites [Ignorance, the cause of love and hatred, has discrimination as its opposite.], then he becomes mindful only of the scriptural teachings; he ceases to be led by his nature. Therefore, na agacchet, one should not come; vasam, under the sway; tayoh, of these two, of love and hatred; hi because; tau, they; are asya, his, this persons pari-panthinau, adversaries, who, like robbers, put obstacles on his way to Liberation. This is the meaning. In this world, one impelled by love and hatred misinterprets even the teaching of the scriptures, and thinks that somebody else’s duty, too, has to be undertaken just because it is a duty! That is wrong: