JAKI RAHI BHAVANA JAISI, PRABHU MOORAT TIN DEKHI WAISI

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“जाकी रही भावना जैसी,प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी!” व्यक्ति अपनी भावना के अनुरूप जैसा चाहे बन सकता है और जो चाहे पा सकता है! भावना अंतःकरण की तरंग है जिससे विचार प्रदर्शित होता है!

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे वैसी ही मूरत नज़र आती है। गोस्वामी तुलसी दास जी द्वारा कथित इस चौपाई का अनुसरण करते हुए समाज के कुछ लोग प्रभु श्रीराम की अलग अलग कल्पना करते हुए प्रभु श्री राम के यथार्थ गुण, कर्म और स्वभाव को भूल ही गया

“आत्मनः प्रतिकुलानी परेशां न समाचरेत” अतः जैसी भावना अपने को अच्छी न लगे वैसी दूसरों के साथ न करे! भावना के कारण ही मनुष्य पत्थरों मे प्रभु का दर्शन करता है और मन को आनंदित करता है किंतु विपरीत सोच के कारण लोग केवल पत्थर ही समझते हैं

ईश्वर की मूर्ति भी हमारे भावों का दर्पण होती है।सबको अपना अपना इष्ट भी वैसा ही नजर आता है,जैसे जैसे हमारे भाव और विचार उसके प्रति होते हैं।

One’s thoughts and feelings both determine one’s karma. The way one perceives people and things around himself, they will appear in that very same way to him. People will appear to you the way you perceive them to be. If you see a person as a friend, he will come across as a friend to you. If you consider someone as your enemy he will behave like an enemy to you. Then they will appear as your enemy to you even if they do not do anything. It is said – ‘Yatha drishti tatha srishti’ (Meaning: As is one’s vision, so does the world appear to him).”As the feeling of the lord has seen, the image of the Lord, tinh taisee!” A person can become as he pleases and receives whatever he wants in accordance with his spirit!

Emotion is the wave of conscience from which the thought is displayed!

So do not do the same feeling with others as you do not like yourself! It is because of emotion that man sees the Lord in stones and makes the mind happy, but due to contrary thinking, people understand only stones.

In the company of your friends, you lose your centeredness. Your enemy puts you back in yourself. Your friend sympathizes with you and makes you believe in matter. Your enemy makes you feel helpless and takes you to the spirit. So your enemy is your friend and your friend is your enemy! Krishna said to Arjuna: One who is unfriendly everywhere (including himself); his consciousness is stable and awareness is established

JAKI RAHI BHAVANA JAISI, PRABHU MOORAT TIN DEKHI WAISI

FOR CHANGING THE PRABHU MOORAT, CHANGE THE BHAVANA. CHANGE THE BHAVANA WITHIN AND TRANSFORM YOUR LIFE. WHAT YOU FEEL INSIDE THAT IS THE ULTIMATE. YOUR BHAVA WILL DECIDE THE PRABHU MOORAT.

The bhava is supreme. There is neither close and nor distant substitute of it. It is not a show business. It is not going to impact others but self only. We are not doing anything to show it to others, but for our peace, happiness and contentment. What we search for, we will get that only. As the God is one but the worshipers and devotees are limitless. As the teacher is one but the students in the class are many. The film is same for all the spectators, but everyone gets what he is searching for. Some people seek good so they will get / achieve good only. Some people seek bad and will get that only. It all depends on what is there within you. What you are looking for? We need to mind our perceptions / thoughts / bhavas.

We get that only what is our BHAVA. We are not going to get any other thing than BHAVA. So do not bother for what you get but for what you are seeking and what is your hunger / appetite for. The fault lies in the BHAVA and not in the PRABHU MOORAT. We need to mind our BHAVA. Do not blame others but self. As you were seeking wrong so you achieved wrong.

We will find the Lord in that form only for which we are seeking. The prabhu has limitless MOORATS, but he will appear in the form in which you want to see him. So, it is not the PRABHU MOORAT, but you who is responsible for bringing the prabhu in that form to you.

यह सृष्टि विविधमयी है। जिसकी आँख पर जैसा चश्मा चढ़ा होता है, उसको भगवान का वैसा ही रूप दिखाई देता है। कोई परमात्मा को ‘ब्रह्म’ कहता है; कोई ‘परमात्मा’ कहता है; कोई ‘ईश्‍वर’ कहता है; कोई ‘भगवान’ कहता है। लेकिन अलग-अलग नाम लेने से परमात्मा अलग-अलग नहीं हो जाते।इसलिए जो राम दशरथ जी का बेटा है;वही राम घट घट में भी लेटा है; उसी राम का सकल पसारा है; और वही राम सबसे न्यारा भी है।

राम चरितमानस के बालकांड की इस चौपाई को कबीर जी की यह कहानी सही अर्थों में चित्ररार्थ करती हैं। इस कहानी से हमे यह शिक्षा मिलती हैं- इर्श्‍वर एक हैं। पर हर कोई उसे अपने नजरिए से देखता है। कोई उसे ‘राम’ कहता है तो कोई उसे ‘अल्‍ला’ कहता है; दूसरे शब्‍दों में आप इसे यू भी समझ सकते हैं कि वास्‍तव मे चीज एक ही है पर उस चीज को हर व्‍यक्ति अपने अपने नजरिय से देखता हैं।

मेरा यह मानना है कि व्‍यक्ति अपने पि‍छले कर्मों के अनुसार जिस देश; जिस जाति; या परिवार में जन्‍म लेता है। उसी देश; जाति और परिवार के अनुसार ही वह कसी वस्‍तु को देखने और समझने लगता है।

वास्‍तव में चीज एक ही है पर सभी देश और जाति के लोग उसे अपनी-अपनी  भाषा के अनुसार जानते और समझते हैं। भारत के महान संतों ने सदैव ही कहा है ईश्‍वर एक है। आप इसे एक उदाहरण द्वारा बडी सरलता से समझ सकते हैं- जैसे पानी एक तत्‍व है! हिंदी भाषा में इसे ‘जल’, उर्दू भाषा में इसे ‘पानी’ और संस्‍कृत भाषा में इसे ‘वारि’ अंग्रेजी भाषा में इसे ‘वॉटर’ कहते है और रूसी भाषा में इसे (वाडी) воды (vody) कहते हैं। इसी प्रकार  तो French भाषा में l’eau (लू ) कहते हैं। आपने देखा कि किस प्रकार एक ही चीज के प्रत्‍येक भाषा में अलग-अलग नाम है

इसलिए कोई परमात्मा को ‘ब्रह्म’ कहता है; कोई ‘परमात्मा’ कहता है; कोई ‘ईश्‍वर’ कहता है; कोई ‘भगवान’ कहता है। लेकिन अलग-अलग नाम लेने से परमात्मा अलग-अलग नहीं हो जाते।

दृष्टि के बदलते ही सृष्टि बदल जाती है, क्योंकि दृष्टि का परिवर्तन मौलिक परिवर्तन है। अतः दृष्टि को बदलें सृष्टि को नहीं, दृष्टि का परिवर्तन संभव है, सृष्टि का नहीं। दृष्टि को बदला जा सकता है, सृष्टि को नहीं। हाँ, इतना जरूर है कि दृष्टि के परिवर्तन में सृष्टिभी बदल जाती है। इसलिए तो सम्यकदृष्टि की दृष्टि में सभी कुछ सत्य होता है और मिथ्या दृष्टि बुराइयों को देखता है। अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हमारी दृष्टि पर आधारित हैं।

दृष्टि दो प्रकार की होती है। एक गुणग्राही और दूसरी छिन्द्रान्वेषी दृष्टि। गुणग्राही व्यक्ति खूबियों को और छिन्द्रान्वेषी खामियों को देखता है। गुणग्राही कोयल को देखता है तो कहता है कि कितना प्यारा बोलती है और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितनी बदसूरत दिखती है। गुणग्राही मोर को देखता है तो कहता है कि कितना सुंदर है और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितनी भद्दी आवाज है, कितने रुखे पैर हैं। गुणग्राही गुलाब के पौधे को देखता है तो कहता है कि कैसा अद्भुत सौंदर्य है। कितने सुंदर फूल खिले हैं और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितने तीखे काँटे हैं। इस पौधे में मात्र दृष्टि का फर्क है। जो गुणों को देखता है वह बुराइयों को नहीं देखता है

कबीर ने कहा-
बुरा जो खोजन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
कबीर ने बहुत कोशिश की बुरे आदमी को खोजने की। गली – गली, गाँव – गाँव खोजते रहे परंतु उन्हें कोई बुरा आदमी न मिला। मालूम है क्यों ? क्योंकि कबीर भले आदमी थे। और भले आदमी को बुरा आदमी कैसे मिल सकता है?

कबीर अपने आपको बुरा कह रहे हैं। यह एक अच्छे आदमी का परिचय है, क्योंकि अच्छा आदमी स्वयं को बुरा और दूसरों को अच्छा कह सकता है। बुरे आदमी में यह सामर्थ्य नहीं होती। वह तो आत्म प्रशंसक और परनिंदक होता है। वह कहता है भला जो खोजन मैं चला भला न मिला कोय, जो दिल खोजा आपना मुझसे भला न कोय।

ध्यान रखना जिसकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूँढने की आदत पड़ गई, वे हजारों गुण होने पर भी दोष ढूँढ निकाल लेते हैं और जिनकी गुण ग्रहण की प्रकृति है, वे हजार अवगुण होने पर भी गुण देख ही लेते हैं, क्योंकि दुनिया में ऐसी कोई भीचीज नहीं है जो पूरी तरह से गुणसंपन्ना हो या पूरी तरह से गुणहीन हो। एक न एक गुण या अवगुण सभी में होते हैं। मात्र ग्रहणता की बात है कि आप क्या ग्रहण करते हैं गुण या अवगुण।

Reference Doha 241 Balkhand

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी – Param Hindi

यह चौपाई महाराज जनक की सभा में श्रीराम और लक्ष्मण जी के आगमन के समय की है जब माता सीता का स्वयंवर होने जा रहा है ! इसका अर्थ गोस्वामी तुलसीदासजी आगे की चौपाइयों में स्वयं वर्णन कर रहस्योद्घाटन कर देते हैं कृपया नीचे देखें :

राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥ गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा

उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर हैं) मानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो। सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं।

राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे

जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥

वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चंद्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी।

देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥

महान रणधीर (राजा लोग) राम के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों। कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो।

रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा। पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नर भूषन लोचन सुखदायी॥

छल से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में (बैठे) थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। नगर निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषण रूप और नेत्रों को सुख देनेवाला देखा।

दो० – नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप। जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥ 241॥

स्त्रियाँ हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं। मानो श्रृंगार-रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो॥ 241॥

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥ जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥

विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत-से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं। जनक के सजातीय (कुटुंबी) प्रभु को किस तरह (कैसे प्रिय रूप में) देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (संबंधी) प्रिय लगते हैं।

सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥ जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥

जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। योगियों को वे शांत, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्त्व के रूप में दिखे।

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥ रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥

हरि भक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देनेवाले इष्ट देव के समान देखा। सीता जिस भाव से राम को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहने में ही नहीं आता।

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥ एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥

उस (स्नेह और सुख) का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश राम को वैसा ही देखा।

Conclusion

Let’s understand it better. This statement is all about human perspective towards life. It is attitude which defines person behavior. If someone is criminal in the society, it because their attitude towards life is negative. Which lead them to dark and finally in jail which is known as karma. Whereas people with the positive mindset will lead their life towards greatness.

The basic teaching from Ramayana is that no matter how powerful evil is, it will always be defeated by Good. Truth always wins, no matter how vicious or poisonous lie is because even a bitter truth oozes with positivity and the sweetest lie has the darkest agenda behind it. The win of good over evil is a universal fate.

Always keep positive thinking to the world with open eyes and open mind .Also important out thoughts shouldn’t get into blind spot where we can make wrong turn that result in accident that means losing our near and dear relationship. IT TAKES LONG TIME TO DEVELOP GOOD FRIEND’S , HENCE NURTURE AND LEARN FROM BEAUTIFUL RAMAYANA MANTRA “JAKI RAHI BHAVANA JAISI, PRABHU MOORAT TIN DEKHI WAISI

Added additional perspective March 19, 2022

. Thanks Kiran sister beautifully corelating

My Father Shri late Ramratan ji  quoted in family letter to explain us the meaning   “Why you think God  only should Krupa on you. Rather we should see broader perspective to pray Lord blessings for everyone . This is only possible when  we change the way  see and think the world

Today’s thought is exactly  continuing same thought

If man’s intellect is captivated, he cannot see the reality. When the eyes are free from attachment and aversion, then he sees the object. When there is anger and hatred, the same thing looks like that. In raga, faults are also seen, and in hatred, virtues are also seen. This is the natural result of anger and hatred.

 In Hindi

राधे राधे जय श्रीराम  सभी को शनिवार को शुभकामनाएं दीं| होली के लिए सभी को धन्यवाद कि वे एक दूसरे के बीच समानता और सकारात्मक कंपन लाने के लिए खुश रहें और अच्छे नैतिक मूल्यों को विकसित करें. धन्यवाद किरण बहन खूबसूरती से पिताजी की सिख बताने के लिए

मेरे पिता श्री स्वर्गीय रामरतन जी ने हमें अर्थ समझाने के लिए परिवार के पत्र में उद्धत किया कि “आपको क्यों लगता है कि भगवान को केवल आप पर कृपा करनी चाहिए। इसके बजाय हमें सभी के लिए भगवान के आशीर्वाद की प्रार्थना करने के लिए व्यापक परिप्रेक्ष्य देखना चाहिए। यह केवल तभी संभव है जब हम दुनिया को देखने और सोचने के तरीके को बदलते हैं।

प्रभु को आत्मसमर्पण” पुस्तक से उद्धत

जबतक मनुष्य की बुद्धि मोहित है, तबतक वह यथार्थ दर्शन नहीं कर सकता है। राग-द्वेष से रहित जब नेत्र होते हैं, तब उसको वस्तु यथार्थ रूप से दिखती है। राग-द्वेष युक्त होने पर उसी अनुरूप वस्तु दिखती है। राग में दोष भी गुण दिखता है और द्वेष में गुण भी दोष दिखता है। यह राग-द्वेष का स्वाभाविक परिणाम है।

– परम पूज्य “भाईजी” श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार